देवेश प्रताप सिंह राठौर..........
नैतिकता पर महर्षि बाल्मीकि का कहना है, ‘श्रेष्ठ पुरूष दूसरे पापाचारी प्राणियों के पाप को ग्रहण नहीं करता। उन्हें अपराधी मानकर उनसे बदला नहीं लेना चाहता। इस नैतिकता की सदा रक्षा करनी चाहिए।’ हमारे ऋषियों और आचार्यों ने जब कहा कि ‘आचारःपरमो धर्मः’ तो इसका यही अर्थ रहा कि नैतिकता ही सबसे बड़ा धर्म है।आज के समाज में मूल्यों का स्तर गिरता जा रहा है। सभी प्रकार के मानवीय मूल्यों के घटने में चरित्र पतन सबसे बड़ा कारण है। हमारा चरित्र आज क्यों भ्रष्ट और नष्ट हो रहा है। यह आज एक ज्वलंत विचारणीय प्रश्न है। महाकवि व्यास ने अठारहों पुराण का सार भाग प्रस्तुत करते हुए कहा किअर्थात् दूसरों को पीडि़त करने से कोई बड़ा पाप नहीं और परोपकार से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है। आज जब हम इस पर विचार करते हैं तो हम देखते हैं कि आज तो जैसे पाप पुण्य का भेद ही मिट गया है। आज चारों ओर नैतिकता का घोर पतन हो रहा है। शिष्टाचार, सदाचार, शीलाचार आदि सब कुछ धराशायी होकर समाज के उच्च आदर्शों और मूल्यों से दूर जा पड़े हैं। इसलिए आज
भ्रष्टाचार का एकतंत्र राज्य फैल चुका है। हम अपने सभी प्रकार के संबंधों को इसके दुष्प्रभाव से या तो भूल चुके हैं या तोड़ चुके हैं। भ्रष्टाचार की गोद में ही अनाचार, दुराचार, मिथ्याचार पलते हैं, जो हमारे संस्कार को न केवल पल्लवित होने देते हैं और न अंकुरित ही। समाज एक भटकी हुई अमानवीयत के पथ पर चलने लगता है, जहाँ किसी प्रकार से जीवन को न तो शान्ति, न विश्वास, न आस्था, न मिलाप, न सौहार्द्र और न सहानुभूति ही मिलती है। पूरा जीवन मूल्य विहीन रेत सा नीरस और तृण सा बेदम होने लगता है।नैतिकता नर का ही भूषण नहीं है, अपितु वह समाज और राष्ट्र का ऐसा दीव्य गुण है, जिससे महान से महान शक्ति का संचार होता है इससे राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता महानता के शिखर पर आसीन होती है। अन्य देशों की तुलना में वह अधिक मूल्यवान और श्रेष्ठतर सिद्ध होता है। सभी इससे प्रभावित और आकर्षित होते हैं। आज भौतिकता के युग में नैतिकता को जो हास हो चुका है, उसे देखते हुए संसार के कम ही राष्ट्र और समाज में नैतिकता का दम-खम रह गया है। परस्पर स्वार्थपरता, लोलुपता और अपना-पराया का कटु वातावरण आज जो फैल रहा है, उसके मूल में नैतिक गुणों का न होना ही है। आज मनुष्य मनुष्यता को भूलकर पशुता के ही सब कुछ श्रेय और प्रेम इसलिए मान रहा है कि नैतिकता का परिवेश उसे कहीं नहीं दिखाई देता है। आश्चर्य की बात यह है कि भारत जो नैतिकता के गुणों से युक्त राष्ट्र रहा है और जो नैतिकता के इस सिद्धान्त का पालन करते नहीं अघाते थे।समाज और नैतिकता का घनिष्ट सम्बन्ध है। ऐसा जब हम कहते हैं, तो इसका यही अभिप्राय होता है कि नैतिकता से समाज का आदर्शरूप बनता है। समाज की हर अच्छाई और ऊँचाई के लिए नैतिकता नितान्त आवश्यक है। नैतिकता के द्वारा ही समाज, समाज है अन्यथा वह नरक कुंड है, जहाँ दुर्गन्ध भरी साँसे एक क्षण के लिए जीवन धारण करने के लिए अवश कर देती है। अतएव सामाजिक उत्थान के लिए नैतिकता की बुनियाद अत्यन्त आश्वयकता है।नैतिकता ऐसे सिद्धांत हैं जो किसी व्यक्ति या समाज का मार्गदर्शन करते हैं, जो यह तय करने के लिए है कि किसी भी स्थिति में अच्छा या बुरा, सही या गलत है। यह एक व्यक्ति के व्यवहार या आचरण को नियंत्रित करता है।किसी भी इंसान के जीवन में मूल्यों का अहम योगदान रहता है क्योंकि इन्हीं के आधार पर अच्छा-बुरा या सही-गलत की परख की जाती है। इंसान के जीवन की सबसे पहली पाठशाला उसका अपना परिवार ही होता है और परिवार समाज का एक अंग है। उसके बाद उसका विद्यालय, जहां से उसे शिक्षा हासिल होती है। परिवार, समाज और विद्यालय के अनुरूप ही एक व्यक्ति में सामाजिक गुणों और मानव मूल्यों का विकास होता है। प्राचीन काल के भारत में पाठशालाओं में धार्मिक शिक्षा के साथ मूल्य आधारित शिक्षा भी जरूरी होती थी। लेकिन वक्त के साथ यह कम होता चला गया और आज वैश्वीकरण के इस युग में मूल्य आधारित शिक्षा की भागीदारी लगातार घटती जा रही है। सांप्रदायिकता, जातिवाद, हिंसा, असहिष्णुता और चोरी-डकैती आदि की बढ़ती प्रवृत्ति समाज में मूल्यों के विघटन के ही उदाहरण हैं।भारतीय संविधान का अनुच्छेद-15 किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर भेदभाव की मुखालफत करता है। लेकिन सच यह है कि संविधान लागू होने के पैंसठ साल बाद भी हमारे विद्यालयों में जाति, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाले उदाहरण आसानी से मिल जाएंगे। विभिन्न विद्यालयों में अपने शिक्षण अनुभवों के दौरान मैंने देखा कि विद्यालय में पानी भरने के अलावा सफाई का काम लड़कियों से ही कराया जाता है। अध्यापक पीने के लिए पानी कुछ खास जाति के बच्चों को छोड़ कर दूसरी जातियों के बच्चों से ही मंगवाते हैं। ऐसे उदाहरण भी देखने में आए कि बच्चे मिड-डे-मील अपनी-अपनी जाति के समूह में ही बैठ कर खा रहे थे। स्कूल में कबड्डी जैसे खेल सिर्फ लड़के खेलते हैं। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमारे आसपास के स्कूलों में देखने को मिल जाएंगे।
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