चित्रकूट, सुखेन्द्र अग्रहरि। तुलसीपीठ में चल रही रामकथा में जगद्गुरू रामभद्राचार्य महाराज ने प्रथम दिन की बात को आगे बढ़ाते हुए श्रीराम के परमत्व पर अपनी मान्यता से संबन्धित तर्क रखे। उन्होने तर्क दिया कि यदि महर्षि वाल्मीकि को विष्णु के अवतार श्रीराम का वर्णन करना होता तो वो अपने महाकाव्य का नाम नारायणम रखते न कि रामायणम। अवचेतन में राम का परमत्व गहरे बैठा हुआ है। उसे अब किसी तर्क की आवश्यकता नहीं है। बच्चे-बच्चे राम के परमत्व के गीत गाते हुए मिल जाते हैं। भारतीय परंपरा में प्रमाणों के दो भेद माने गए हैं। स्वतः प्रमाण तथा परतः प्रमाण। ऐसे प्रमाण जो स्वतः सिद्ध हैं उनको स्वतः प्रमाण व जिनको सिद्ध करने के तर्कों की आवश्यकता पड़े उसे परतः प्रमाण कहते हैं। वेद को स्वतः प्रमाण माना जाता है। उसे सिद्ध करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। रामायण को पंचम वेद माना गया है। यह वेद के समान है। अतः इसे भी स्वतः प्रमाण मानना चाहिए। वहीं पुराण परतः प्रमाण के वर्ग में आते हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों को तर्को की कसौटी पर कसकर ही मान्यता प्रदान की जाती है। इसीलिए पुराणों के वहीं तथ्य मान्य है जो श्रुति सम्मत है। इसलिए श्रीराम को परमतत्व ही मानता हूँ।
जगदगुरु रामभद्राचार्य महाराज।
कथा में श्रीराम जन्मोत्सव मनाया गया। इस बिन्दु पर आकर कथा का स्वरूप उत्सवधर्मी हो गया। मानस कथा हाल में बैठे हुए श्रोता श्लोक, गीत, संकीर्तन की धुन में सराबोर हो गए। जगद्गुरू के स्वर में सभी साधु-संत, श्रद्धालु आनंदविभोर होकर प्रभुभाव में डूबे रहे। तुलसी पीठ के उत्तराधिकारी युवराज आचार्य रामचन्द्र दास ने कथा के द्वितीय सत्र की प्रस्तावना, उपसंहार प्रस्तुत किया। आचार्य विश्वंभर ने मंत्रोच्चार के साथ व्यासपीठ का पूजन सम्पन्न कराया। गुजरात से आई शिष्या प्रीति मोहता ने जगद्गुरू की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया। इस दौरान जगद्गुरू के शिष्य आचार्य हिमांशु त्रिपाठी, मदनमोहन, आञ्जनेय, विनय, गोविंद, पूर्णेंदु आदि ने सहयोगी के रूप में कार्य किया।
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