देवेश प्रताप सिंह राठौर..................
आज की राजनीति के समीकरण बदल चुके हैं राजनितिक खीचतान जातीय उन्माद ,साम्प्रदायिकता ,क्षेत्रीयता ,बाहरी शक्तियों की हस्तक्षेप ने भारतीय राजनीति में सामाजिक भावना को नष्ट कर दिया जातापरिणामतः भारतीय राजनीति की पवित्रता नष्ट होने लगी ..हमे जनप्रतिनिधि अपने स्वार्थ में वशीभूत होते गए,आज भ्रष्टाचार एवम अनैतिक आचरण राष्ट्रीय आचरण बन गए हैं भारतीय राजनीतिज्ञों के इस स्वार्थपरक नीति के कारण भारतीय नौकरशाही का भी नैतिक पतन हुआ हैं आजादी के शुरू के वर्षो में यधपि स्थति ऐसी नहीं थी ..1975 में आपातकाल के दौरान नौकरशाही पूरी तरह से राजनीतिज्ञों के हाथो का खिलौना बन गई थी पंडित जवाहर लाल
नेहरू के काल में नौकरशाही पर दवाब के बहुत ही कम उदाहरण मिलते हैं सरदार बल्लभ भाई पटेल नौकरशाही को आदर की दृष्टि से देखा करते थे। 1949 में संविधान सभा में उन्होंने कहा था मैंने उनके साथ कठिन समय में काम किया हैं किन्तु उन्हें हटा देने के बाद मुझे पुरे देश में अव्यवस्था के सिवा कुछ नहीं दिखेगा सरदार पटेल नौकरशाही पर अनावश्यक दवाब के विरुद्ध थे आज हमरे पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियो का लगातार तबादला कर दिया जाता हैं।एक सड़क छाप नेता एक अधिकारी को वर्दी उतरवा लेने की धमकी देता हैं,सरदार पटेल नौकरशाही को एक स्वतन्त्र और अधिकार युक्त निकाय के रूप में देखना पसंद करते थे, किन्तु कालांतर में ऐसे उदारवादी नेताओ का अभाव हुआ और नौकरशाही प्रभावहीन ही नहीं हुई बल्कि स्वयं भी भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी हुई आज यदि किसी भ्रष्टाचार के मामले में अधिकारी और नेता पकडे जाते हैं तो सजा सिर्फ अधिकारियो को दी जाती हैं आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी हम अपने आचरण, चरित्र, नैतिकता और काबिलीयत को एक स्तर तक भी नहीं उठा सके। हमारी आबादी सत्तर वर्षों में करीब चार गुना हो गई पर हम देश में 500 सुयोग्य और साफ छवि के राजनेता आगे नहीं ला सके, यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ-साथ विडंबनापूर्ण भी है। आज भी हमारे अनुभव बचकाने हैं। जमीन आजाद हुई है, जमीर तो आज भी कहीं, किसी के पास गिरवी रखा हुआ है। लोकतंत्र की कुर्सी का सम्मान करना हर नागरिक का आत्मधर्म और राष्ट्रधर्म है। क्योंकि इस कुर्सी पर व्यक्ति नहीं, चरित्र बैठता है। लेकिन हमारे लोकतंत्र की त्रासदी ही कही जाएगी कि इस पर स्वार्थता, महत्वाकांक्षा, बेईमानी, भ्रष्टाचारिता आकर बैठती रही है। लोकतंत्र की टूटती सांसों को जीत की उम्मीदें देना जरूरी है और इसके लिए साफ-सुथरी छवि के राजनेताओं को आगे लाना समय की सबसे बड़ी जरूरत है। यह सत्य है कि नेता और नायक किसी कारखाने में पैदा करने की चीज नहीं हैं, इन्हें समाज में ही खोजना होता है। काबिलीयत और चरित्र वाले लोग बहुत हैं पर परिवारवाद, जातिवाद, भ्रष्टाचार व कालाधन उन्हें आगे नहीं आने देता।सात दशकों में राजनीति के शुद्धिकरण को लेकर देश के भीतर बहस हो रही है परंतु कभी भी राजनीतिक दलों ने इस दिशा में गंभीर पहल नहीं की। पहल की होती तो संसद और विभिन्न विधानसभाओं में दागी, अपराधी सांसदों और विधायकों की तादाद बढ़ती नहीं। यह अच्छी बात है कि देश में चुनाव सुधार की दिशा में सोचने का रुझान बढ़ रहा है। चुनाव एवं राजनीतिक शुद्धिकरण की यह स्वागतयोग्य पहल उस समय हो रही है जब चुनाव आयोग द्वारा पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर व गोवा का चुनावी कार्यक्रम घोषित हो गया है। यही नहीं, देश की दो अहम संवैधानिक संस्थाओं ने एक ही दिन दो अलग-अलग सार्थक पहल कीं, जो स्वागत-योग्य हैं। गुरुवार को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव सुधार के एक बहुत अहम मसले पर विचार करने के लिए अपनी सहमति दे दी। गंभीर आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए या नहीं, और चुने गए प्रतिनिधि को कब यानी किस सूरत में अयोग्य घोषित किया जा सकता है, आदि सवालों पर विचार करने के लिए न्यायालय पांच जजों के संविधान पीठ का गठन करेगा। दूसरी ओर, निर्वाचन आयोग ने सर्वोच्च अदालत से कहा है कि प्रत्याशियों के लिए अपने आय के स्रोत का खुलासा करना भी अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। यह पहल भी काफी महत्त्वपूर्ण है।
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