फतेहपुर, शमशाद खान । बचपन क्या जाने बाल दिवस की खुशियां उसे बस खेल खिलौने ही आते है लेकिन एक बचपन ऐसा भी होता है जिसे ख्ेाल खिलौना नहीं बल्कि दो वक्त की रोटी कमाकर पेट भरने में खुशी मिलती है। इस वर्ष कोरोना महामारी के चलते विद्यालयों में कार्यक्रम का आयोजन तो नहीं हुआ लेकिन कुछ सामाजिक संगठनों ने बाल दिवस मनाया। उधर किसी भी समाजसेवी या सरकारी अफसर ने सड़क किनारे ढाबो, भट्टो मे मजदूरी के नाम पर पिसते बचपन की फिक्र नहीं की।
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बाल मजदूरी करता बच्चा। |
शहर क्षेत्र के अन्तर्गत दर्जनों दर्जन ढाबा, होटल व भट्ठे संचलित होते है जिनमे 8 साल से लेकर 14 साल तक के बच्चे दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में सस्ती मजदूरी करने पर मजबूर है। इनके मालिक सस्ती मजदूरी के नाम पर इनके बचपन को कुचलने से परहेज नहीं करते इनकी तब और बल मिलता है जब श्रम विभाग के अधिकारी अपने दफ्तरों में झूलती कुर्सियों पर मजे ले रहे है। बाल दिवस के मौके पर एक भी श्रम विभाग के जिम्मेदार व्यक्ति ने किसी भी होटल से नौनिहाल का बचपन नहीं बचाया। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार जनपद में सैकड़ो की संख्या में रोड़ के ढाबों में काम कर बासी कूसी खाते हुए अपने बचपन का पूरा समय गवां चुके है। ढ़ाबों के अलावा हलवाई की दुकानो में भी झूठे पत्तल दोना उठाते हुए देखे जा सकते हैं। इतना ही नही रंग बनाने वाले कारखानों में आख की जलती हुयी भट्ठियों में कोयला झोकने के काम में भी सभी जगह इन नौनिहालों को लगाया जा रहा है और ई-रिक्शा को चलाने के लिए भी नाबालिकों को रखकर कम खर्चें मे मालिकान गाड़ियां चलवा रहे है। जिन्हे जिम्मेदार अधिकारी देखते हुए भी अनजान बने रहते है।
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