हमीरपुर, महेश अवस्थी । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद़ द्वारा संचालित जिला विज्ञान क्लब कार्यालय में सर सी वी रमन का जन्मदिन मनाया गया । जिला विज्ञान क्लब के समन्वयक डॉ जी के द्विवेदी ने कहा कि तारों की आकाश गंगा के बीच बीसवीं शताब्दी के विज्ञान जगत में चंद्रशेखर वेंकटरमन इस तेज के साथ चमके कि समय की धार भी उन्हें धूमिल नही कर पाई।समुद्र और आकाश की गहरी नीलिमा, सेंट पॉल के प्रधान गिरजा घर के गोल गुंबज की फुस फुसाहट , हीरे की चमचमाती सुंदरता , बीन और वायलिन की मधुर धुन उन्हें सदैव प्रभावित करती रहीं। उनका वैज्ञानिक कार्य 6 दशकों के समर्पित प्रयास का परिणाम है। जिसमें उनके 400 लेख प्रकाशित हुए। प्रोफेसर सर सी वी रमन के जीवन के सूक्षम अध्ययन का आज भी बहुत महत्व है। उनका जन्म 7 नवंबर 1888 को त्रिचनापल्ली के निकट तिरुवान इकबल के एक छोटे से गांव में हुआ था। उनके पिता चंद्रशेखर अय्यर वहां के एस पी जी कॉलेज में अध्यापक थे। उनकी माता पार्वती अम्मल एक सुसंस्कृत परिवार की कन्या थी ।सन 1992 में उनके पिता गणित एवं भौतिकी के अध्यापक होकर विशाखापट्टनम चले गये। रमन की प्रारंभिक शिक्षा विशाखापट्टनम की प्राकृतिक सुंदरता और विद्वानों की संगति के बीच हुई ।12 वर्ष की आयु में ही रमन ने मैट्रिक परीक्षा पास कर ली , उन्होंने श्रीमती एनी बेसेंट के भाषण सुने और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे उनके जीवन में भारतीय गौरव कीअमिट छाप पडी़। वे भारतवर्ष के बहुत बड़े वैज्ञानिक थे, परंतु वे विज्ञान की शिक्षा के लिए विदेश नहीं गए।
रमन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कालेज मे स्नातक की परीक्षा में विश्वविद्यालय में अकेले ही प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए ।उन्हें स्वर्ण पदक दिया गया। 1907 में रमन ने स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की ,उन्होंने इतनेअंक प्राप्त किए जितने पहले किसी को नहीं मिले थे। उनका पहला अनुसंधान लेख लंदन की फिलो सोफिकल मैगजीन में नवंबर 1906 मे प्रकाशित हुआ। शीर्षक था आयताकार क्षेत्र के कारण उत्पन्न असीमित विवर्तन पटियां। उन दिनों रमन के समान प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिए भी वैज्ञानिक बनने की सुविधा नहीं थी। वे एक दिन दफ्तर से आ रहे थे कि उन्होंने एक साइन बोर्ड देखा।वैज्ञानिक अध्ययन के लिए भारतीय परिषद, ट्राम से उतरकर वे सीधे परिषद कार्यालय पहुंचे । अपने परिचय के साथ ही प्रयोगशाला में प्रयोग करने की आज्ञा प्राप्त कर ली। उन्होंने अपने ही घर में प्रयोगशाला बना ली थी और उसमें ही प्रयोग करते थे।1911 में जब उनका तबादला कोलकाता हुआ तो भारतीय परिषद के प्रयोगशाला में काम करने लगे।कुलपति आशुतोष मुखर्जी द्वारा दिए गए कोलकाता विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्राध्यापक पद के निमंत्रण को रमन ने 1917 में स्वीकार कर लिया।
यहां पहले कुछ वर्षों में उन्होंने वस्तुओं में प्रकाश के चलने का अध्ययन किया। इनमें किरणोका पूरा समूह बिल्कुल सीधा नहीं चलता उसका कुछ भाग अपना मार्ग बदल कर बिखर जाता है।जब एक्स किरणें प्रकीर्ण होती हैं ,तो उनकी तरंग लंबाई में परिवर्तित हो जाती है ।साधारण प्रकाश में भी ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए। उन्होंने पारद आर्क के प्रकाश का स्पेक्ट्रम स्पेक्ट्रोस्कोप और पारद आर्क के बीच तरह-तरह के रासायनिक पदार्थ रखें और पारद आर्क के प्रकाश को उनमें से गुजार कर इस्पेक्ट्रम बनाए।उन्होंने पाया कि प्रत्येक स्पेक्ट्रम में अंतर पड़ता है।प्रत्येक पदार्थ अपनी अपनी तरह का अंतर डालता है इस प्रकार के अच्छे स्पेक्ट्रम तैयार कर उन्हें माप कर और गणित करके उनकी सैदधांतिक व्याख्या की गई। इस आधार पर सिद्ध किया गया कि यह अंतर प्रकाश की रंगों में परिवर्तित होने के कारण पड़ता है। रमन ने इस खोज की घोषणा की। वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए रमन 1924 में रॉयल सोसाइटी के फैलो बनाए गए ।रमन प्रभाव के लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार दिया गया। रमन प्रभाव के संबंध में अब तक लगभग 10,000 अनुसंधान लेख प्रकाशित किए जा चुके हैं। ब्रिटिश सरकार ने रमन को सर की उपाधि दी ,भारतीय गणराज्य ने उन्हें 1954 में भारत रत्न से विभूषित किया। रमन बड़े आत्मभिमानी थे।
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